आत्म द्वंद्व



कब तक भटके यूं मन मेरा,
कब होगा वो नया सवेरा।
कब पनपेगा आत्मनियंत्रण,
कब आयेगा वो पावन क्षण।

मैने खुद को क्या समझा था,
मैने खुद से क्या चाहा था।
सब कुछ अब हो गया विस्मरण।


आखिर कब समझूंगा खुद को,
कब सन्तोष मिलेगा मुझको।
कब आयेगी नई बहार,
नये सृजन का एक संचार

प्रश्न श्रंखला कब होगी कम,
कब होगा ये द्वंद्व मेरा खत्म।

हर पल जीवन आगे बढ़ता,
हर क्षण ये जग चलता रहता।
कब मुझमे आयेगी वो गति,
कब जायेगी भय की अनुभूति।

क्यूं मैं इतना भयाक्रांत,
क्यूं इतना विचलित और अशान्त।

क्या करुं समझ से है बाहर,
क्यूं करूं समझ से है बाहर,
पर फिर भी करना पड़ता है,
क्यूंकि हर क्षण ये जग आगे बढ़ता रहता है।

क्यूं बांध दिया मैने खुद को,
इस जग की शिथिल व्यवस्था में।
रह गया मात्र अनुचर बनकर,
इस खंडित होती दुनियां में।

क्यूं दिशा नहीं दे पाया मैं,
अपने उद्विग्न विचारों को।
क्यूं पार नहीं कर पाया मैं,
इस जीवन की मंझधारों को।

मानव जीवन है मिला मुझे ,
क्या मैं इसके लायक था?
हे ईश्वर कैसी मंशा लेकर,
तूने मुझे बनाया था?

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